रविवार, 13 मई 2012


सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं ......अहमद फ़राज़ 


 सुना है लोग उसे आँख भर के देखते है

सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से 
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं 

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी 
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं 

सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़ 
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं 

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं 
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं 

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है 
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं 

सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें 
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं 

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं 
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं 

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी 
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं 

सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है 
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं 

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं 
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं 

सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी 
जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं 

सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में 
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं 

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में 
पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं 

सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं 
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं 

वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं 
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं 

बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का 
सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं 

सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त 
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं 

रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं 
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं 

किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे 
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं

कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही 
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं 

अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायेँ 
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं 

अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं 

जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं 

रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-खुराम कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं 

तू सामने है तो फिर क्यों यकीं नहीं आता
यह बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं 

ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में
जो लालचों से तुझे मुझे जल के देखते हैं 

यह कुर्ब क्या है कि यकजाँ हुए न दूर रहे
हज़ार इक ही कालिब में ढल के देखते हैं 

न तुझको मात हुई न मुझको मात हुई
सो अबके दोनों ही चालें बदल के देखते हैं 

यह कौन है सर-ए-साहिल कि डूबने वाले
समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं 

अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं

बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी ख़ैर ख़बर
चलो फ़राज़ को ऐ यार चल के देखते हैं
अहमद फ़राज़ ....


कुछ शेर !!! अहमद फ़राज़ ...


इससे पहले की बेवफा हो जाएँ...

क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जायें...


तू भी हीरे से बन गया पत्थर...


हम भी कल क्या से क्या हो जाएँ...

सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है...


की फूल अपने कबायें क़तर के देखते हैं...


रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ करती हैं...


चले तो उसको जमाने ठहर के देखते हैं...



अहमद फ़राज़...
    अहमद फ़राज़ ....


जिंदगी  से यही गिला है मुझे !!!


जिंदगी  से यही गिला है मुझे


कि  तू बड़ी देर से मिला है मुझे...
..
हमसफ़र चाहिए हुजूम नहीं.
..
एक मुसाफिर ही काफिला है मुझे...

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल...

हार जाने का हौसला है मुझे...

अहमद फ़राज़ !!!

बुधवार, 9 मई 2012


     सूरज 
बाहर  खड़ा था सूरज 
रोज दस्तक देता 
भीतर आने को 
मन के द्वार बंद थे 
रोज सुबह पहली किरण को भेज देता 
देखने को कही खुला है द्वार 
और हम द्वार बंद किये 
भीतर के अंधकार को 
जिए जा रहे थे 
तभी एक दिन बंद द्वार 
खुल गए अचानक 
और किरण के संग संग 
पूरा का पूरा सूरज 
भीतर आया गया 
कौधने लग गया 
असीम प्रकाश 
आज भी सूरज बहार ही है 
मगर मन और तन रोशन हैं 
सूरज की वह पहली ज्ञान की किरण 
और पूरा सूरज भीतर आ गया
                             नीरजा 

मंगलवार, 8 मई 2012



प्यार वो एहसास है ,जो दिखाया नहीं जा सकता ,प्यार वो एहसास है जो 

छुपाया भी नहीं जा सकता ,प्यार रूह से रूह को पहचान लेता है ,आजमाना 

चाहो तो .........

 भी नहीं जा सकता ,प्यार ठंडी बयार का वो झोंका है ,जिसे आँख बंद कर 

के महसूस करो!!!!!!! 

"प्यार अनुभूति है जिसे कभी भुलाया  नहीं जा  सकता"  ....... नीरजा


प्यार 

जन्म पहले  लिख दी जाती है तकदीरें ,

हाथो में सजा दी जाती है तदबीरें ,

लकीरों में लिखा सच होता है ,

वक़्त आने पर ,सब .........

चेहरे को हाथों में मत देखो ,

दिल में बसा लो उसको ,

जहाँ इस जहां  को पता न चले 

आँखें फिर भी बयाँ कर देंगी ,

यह तो हजूर दिल की बात है ,

बहुत कीमती हैं यह मोती ,

संभाल लो इनको अपने  भीतर ,

जब मुलाकात होगी तो काम आयेंगे ,

वो भी शायद ,इतना ही रोती होगी ,

याद उसको भी आती होगी ,

जब याद आये उसकी ,

गर्दन झुकाई और देख ली तस्वीरे यार  ,

आस है तो मुलाकात भी होगी ,

यह बात और है ,कि वो तो कह भी न पाती होगी,

कितना रोती होगी ,और सो जाती होगी ,

ख्वाबों में आओगे ,हर रात सपने सजाती  होगी ,

हो दोनों के सपने पूरे ,हर पल मन्नतें लगाती होगी 

                                     नीरजा      

शनिवार, 5 मई 2012





वर्तमान की यह यात्रा 

मुक्ति यात्रा की कोई कड़ी है ही 

गुरु का ज्ञान इस यात्रा को उददेश्य दे जाता है 
और चल पड़ता है प्राणी का अचेतन 
चेतन होने को सचेतन के साथ 
स्वप्नों की संरचना को छोड़
जान लेता है जीवन की क्षण भंगुरता को 
कहाँ हो पाएंगे ये दिवास्वपन 
पूरे हो भी जाएँ 
तो क्या सदा साथ रहेंगे तुम्हारे ?

मंगलवार, 1 मई 2012

                                           एक मौत

आज जब आफ़िस से घर आई तो अचानक नुकड़ के घर के बहार भीढ़ लगी हुई थी .पूछने पर पता चला कि


 तमन्ना ने आत्म हत्या कर ली थी .मैं सन्न रह गई मगर कहीं अंदर से मेरी आत्मा कह रही थी कि यह तो

एक दिन होना ही था .तमन्ना पिछले काफी दिनों से परेशान सी लगती थी .कई बार पूछने की कोशिश भी 


की ,पर न जाने क्या सोच कर वो बता नहीं पाई और आज कि घटना उसी का नतीजा था

पुलिस आई और उस की लाश को हस्पताल ले गई .
.
तम्मन्ना जिसने खुद को झोंक दिया था ......सब कुछ सहा था ....सिर्फ इस लिए कि गोद में बेटी थी
 .
बेटी कुछ बन जाये दो अक्षर पढ ले कही अच्छा घर मिल जायेगा आज सारी तम्मन्ना धरती पर पड़ी थी 


किस काम आई. उस शराबी पति की गन्दी गालियाँ ,वो मारना पीटना ,वो बदतमीजी से पेश आना ...फिर


भी वो सब झेलती रही थी ,बेटी कि खातिर ...
.
फिर आज ऐसा क्या हो गया कि उसने इतना बड़ा कदम उठा लिया ....हाँ पिछले कुछ दिनों से वो आफ़िस 


अच्छे कपडे पहन कर जाने लगी थी अपने काम में उस को आनंद आता था चाहे उसका वो गन्दा पति 


कितना कुछ बोलता था उसके चरित्र पर भी पर वो इतनी पाक दामन थी कि लोग उसके नाम सुनते ही 


कसम उठाने को तैयार हो जाते थे 

शाम को कम वाली बाई आई तो आँख खुली ,शायद सोचते सोचते सो गई होगी

 "अम्मा" इसी नाम से पुकारती थी वो ....बोली देखा वहां पोलिस आई है कोने वाली के घर में

अच्छा चलो तुम अपना काम खत्म करो मुझे कहीं जाना है ......

कल भी उसका घर वाला पैसा लेने आया था बहुत गालियाँ दी ,मारा भी .....बाई भी कहाँ  चुप बैठने वाली


 थी  .फिर बेटी बोली .....अब मेरा दिमाग इस ओर चला ...आ इधर आ क्या हुआ था मैंने बाई को पास बैठा 


र पुछा 

होना क्या था बाप झगडा कर के गया ही था कि बेटी ने पैसे मांगे .वो मैंने सामान ले लिया उत्तर था उसका 


.क्यूँ लिया मेरे पैसे थे क्यूँ खर्च किये क्यूँ ....क्यूँ ......करते हुए बेटी ने माँ पर हाथ उठा दिया और घर से 


बाहर  चली गई 

बचपन से लेकर कर आज बेटी की जवानी तक खुद को मिट्टी कि गुडिया बना कर खुद को जिया उसने

अपनी हर तम्मना को मार डाला इस बेटी की  खातिर और आज वो बेटी ही उसकी मौत का सिला बन गई !

कई दिन बीत गए .समाज के बनाये सब रस्मोरिवाज भी पूरे हो गए !

एक दिन मुझे कुछ याद आया , मैं उठी और उसकी रखी हुई पोटली उठाई और भारी क़दमों से उस के घर 


कि ओर चल पड़ी जहाँ सब कुछ फिर से पहले जैसा ही था पर नहीं थी तो वो ...जिसे इस घर से ,बेटी से

बहुत प्यार था उसकी बेटी के हाथ में  रख दी ......इन हालत में भी उसने अपनी औकात से बढ़ कर कुछ 


सामान बेटी कि शादी के किये बना रखा था .


पर अब तो वो लिख गई थी कि



" मेरी मौत कि जिम्मेदार मैं खुद हूँ "

और मैं चुपचाप सोच में डूबी हुई कब घर पहुँच गयी , पता भी न  चला 

थोड़ी ही देर बीती थी कि बेटी मेरे घर आ गई --आप से सच कहूँगी मैंने अपनी माँ का दिल दुखाया है इस

की  जिम्मेदार मैं हूँ आप पुलिस को बुला कर मुझे पकड़ा दो 


"पगली सारी जिंदगी उस ने नौकरी करी खुद को गंदे लोभी  लोगों  से बचा कर तेरे बाप के ताने सुने और 


आज वो सच में टूट गई अच्छा हुआ ....अब तुम पलना अपने पागल बाप को जिसे नशे मैं किसी का फर्क 


पता नहीं चलता !

अच्छा कुछ  दिन आप के पास रह लूं घर का काम कर दूँगी कहते हुए वो अंदर चली गई

क्या इसे पता है कि माँ के जाने कि जिम्मेदार यह खुद है .......नहीं शयद कभी पता भी न चलेगा 


.....क्यूंकि पत्र तो मेरे पास है

पत्र में उस ने लिखा था -दीदी जिस बेटी के लिए मैंने खुद को होम कर दिया वो भी अपने पापा के

नक्शेकदम पर चलने लग गई है .

अब मैं हार गयी हूँ अगर हो सके तो उस को समाज मैं एक अच्छी जगह देने कि जरूर कोशिश करना 


....तम्मन्ना "

नीचे तारीख़ डाली ही थी आज से तीन महीने पहले की !!!!!!!


    नारी 


व्यथा से भरी हुई 

सुहागिन कहलाते हुए 

एक असहनीय पीड़ा को 

ह्रदय में समेटे हुए 

जीना पडा संसार में 

बस इक आस के सहारे 

दो रोटी के लिए रहती हूँ 

पति  नाम के अजनबी के द्वारे 

बहुत कठिन है यह पल 

क्या यही आदमी था कल 

और आज क्या हो गया 

जिंदगी की भागदौड में 

कहीं अपने ही हाथों खो गया 

खत्म हो गया सब 

रह गई वीरानियाँ 

करता है दिल भीतर क्रंदन 

और रिसते हैं जख्म 

जो दिखाई भी नहीं देते 

मरहम भी नहीं 

मेहरम भी नहीं 

वजूद ही जब मिट गया 

 मेरी पहचान भी नहीं !!!!